डॉ. भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय के जुबली हाल में दो दिवसीय राष्ट्रीय हुई संगोष्ठी प्रारंभ
आगराः डॉ. भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय के पालीपाल पार्क स्थित जुबली हाल में गुरुवार से कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी हिंदी तथा भाषाविज्ञान विद्यापीठ के सूरपीठ द्वारा सूर साहित्य की त्रिवेणी (भक्ति, वात्सल्य और श्रृंगार के विविध आयाम) विषय पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी प्रारंभ हो गई। विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो. आशु रानी के मार्गदर्शन और डीन कला संकाय प्रो. हेमा पाठक में निर्देशन में आयोजित संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि व वक्ता वरिष्ठ साहित्यकार व पूर्व निदेशक के.एम.आई. प्रो. जय सिंह नीदर थे। बीज वक्तव्य पूर्व आचार्य व अध्यक्ष हिंदी विभाग, एसआरके पीजी कॉलेज फिरोजाबाद के प्रो. रामसनेही लाल शर्मा यायावर का रहा। विशिष्ट वक्ता आगरा कॉलेज हिंदी विभागा की आचार्य प्रो. शेफाली चतुर्वेदी, हिमाचल विश्वविद्यालय के हिंदी के सहायक आचार्य डॉ. आशुतोष कुमार रहे। अध्यक्षता विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति प्रो. अजय तनेता ने की। वहीं पद्मश्री प्रो. ऊषा यादव ने भावपूर्ण उद्वोधन दिया। संगोष्ठी की समन्वयक डॉ. नीलम यादव थीं।
कार्यक्रम की शुरुआत अतिथियों ने मां सरस्वती के समक्ष दीप प्रज्वलित कर किया। कीठम स्थित महाकवि सूरदास दृष्टिबाधित दिव्यांग विद्यालय एवं शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थान के विद्यार्थियों ने गायन प्रस्तुति दी।
बीज वक्ता प्रो. रामसनेही लाल शर्मा यायावर ने अपने संबोधन में भक्ति, वात्सल्य और श्रृंगार के साथ गद्य और पद्य के विभिन्न काल की यात्रा का विस्तृत वर्णन किया। उन्होंने सही मायनों में साहित्य की त्रिवेणी थे। उन्होने भक्तिकाल को भगवान की लीलाओं के चित्रण से जीवंत कर दिया। उनके भक्ति के इस स्वरूप को सम्मान देना ही चाहिए। पुष्टिमार्ग से लेकर द्वैत और अद्वैत का वर्णन करते हुए समझाया कि श्रीमद् भागवत को समाधि भाषा बताते हुए कहा कि इसके अध्यन से पहले योग प्राप्ति होती है और उसका अगला चरण समाधि है। गोपियों के प्रेम योग का वर्णन कर कहा कि उनका योग अलग ही स्तर का था। श्रीमद् भागवत ने उत्साहहीन समाज में आत्मविश्वास जाग्रत किया। सूर ऐसे व्यक्तित्व थे, जिन्होंने अकबर गान से स्पष्ट मना करते हुए श्रीनाथ जी में ही लीन रहने को न सिर्फ प्राथमिकता दी, बल्कि वह साहस दिखाकर समाज का मार्गदर्शन भी किया। सूर के पदों में गोपियों ने ज्ञानी उद्वव को व्यापारी करार देकर अपने प्रेमभाव को सर्वोत्तम बताया। यह सिर्फ सूर के साहित्य और कविताओं से ही संभव था।
विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति प्रो. अजय तनेजा का कहना था कि वर्तमान युग विज्ञान का है, लेकिन विज्ञान के साथ साहित्य का अध्यन भी हो रहा है, जिसका एकमात्र कारण जिज्ञासा है। इस जिज्ञासा का बने रहना आवश्यक है, जिसमें यह सूरपीठ महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
डॉ. आशुतोष कुमार ने विभिन्न लेखकों के माध्यम से सूर की महत्ता का वर्णन किया। साथ ही वर्तमान समय में देश के सभी विश्वविद्यालयों में संचालित हिंदी विभागों के वर्मतान शैक्षिक स्तर पर प्रश्न किए। उनका कहना था कि विश्व आर्टिफिशियल (एआई) के दौर में चल रहा है और हम पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं। यह परिपाठी बदलने की आवश्यकता है, हम प्रासंगिक न हुए, तो बीते जमाने की बात हो जाएंगे। हमें सूर जैना बनना चाहिए, वह किसी भी दौर में रहें, सदैव प्रासंगिक रहेंगे।
प्रो. शेफाली चतुर्वेदी ने बताया कि सूरदास जी को भक्तिमार्ग पर चलाने का श्रेय बल्लभाचार्य जी को जाता है। उन्होंने उनके मन में भक्ति रस का ऐसा बीज बोया, जिसका वृक्ष हमें आज भी पुष्पित और पल्लवित कर रहा है।
प्रो. जय सिंह नीरद का कहना था कि इस संगोष्ठी में हमें सूर के कई रूप देखने को मिली, किसी ने उनके साहित्य के पौराणिक महत्व को दर्शाया, तो किसी ने वर्मतान समाज में उनकी प्रासंगिकता को। सही मायनों में सूर साहित्य की त्रिवेणी थे। उन्होंने जीवन लीलाओं के माध्यम से बूंद-बूंद का रसपान कर जीवन का आनंद लेने की अनुभूति उत्पन्न की। आज का बचपन मोबाइल और भारी बैग ने छीन लिया है। प्रेम बाजारवाद, तो धर्म और आध्यात्म भी हिट और लाइक के लिए अधिक प्रयारसत है। ऐसे में जीवन का सौदर्य कम हो रहा है। जीवन में सुख तो बढे हैं, लेकिन साधना खत्म हुई है। इसके लिए सूर के आदर्शों और उनके साहित्य की शिक्षाओं को सहेजकर उनसे सीखने की आवश्यकता है, जिसमें सूरपीठ का अहम योगदान होगा।
पद्मश्री ऊषा यादव का कहना था कि वृंदावन में आनंद इसलिए है क्योंकि वह श्रीकृष्ण का घर है। सूर के साहित्य की यह विशेषता है कि उसे पढे लिखे जितनी रोचकता से पढ़ते हैं, अनपढ और ग्रामीण भी उतनी ही आसानी से समझ लेते हैं। भाषा का ऐसा ज्ञान और अभिव्यक्ति ही सूर को विशेष बनाती है।
डीन कला संकाय प्रो. हेमा पाठक का कहना था कि विज्ञान और साहित्य के साथ हम इतिहास को नहीं भुला सकते। इतिहास ने हमें बताया कि किस तरह से सल्तनत काल में किस तरह के जुल्म हमने सहे। धार्मिक क्रियाओं और पूजा के लिए हमें जाजिया कर का भुगतान करना पड़ा। लेकिन सूर साहित्य ने उस समय भी लोगों को वह बल दिया कि वह अपनी धर्म की जड़ों से नहीं हटे और उन्हें सहेजकर रखा, जिस कारण हम आज भी आत्मविश्वास से भरकर अपने धर्म का निर्वाहन कर रहे हैं।
संगोष्ठी समन्वयक डा. नीलम यादव ने कार्यक्रम की रूपरेखा बताने के साथ सभी का धन्यवाद दिया। संचालन डा. केशव शर्मा ने किया। प्रो. गिरजाशंकर शर्मा, डॉ. अमित सिंह, डॉ. आदित्य प्रकाश, डॉ. राजकुमार, मोहनी दयाल, डॉ. संदीप कुमार, डॉ. शालिनी श्रीवास्तव, डॉ. रमा, कृष्ण कुमार कनक, अद्वितीय वर्मा, लक्ष्मी यादव, अखिलेश कुमार, सतीश चंद्र यादव, रविंद्र कुमार गौतम आदि मौजूद रहे।